बलिया। जय प्रकाश नारायण (सुरहा ताल) पक्षी अभयारण्य अब खतरे में नजर आ रहा है। ‘News Laundry’ की ख़बर के मुताबिक अभयारण्य में बने चंद्रशेखर विश्वविद्यालय का विस्तार होना है। आरोप है कि वन एवं वन्य जीव विभाग से आवश्यक मंजूरी और अनुमति के बिना ही निर्माण कार्य शुरू हो गया है। बता दें विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए 2018 में शहीद स्मारक ट्रस्ट ने जमीन स्थानांतरित की थी, जो 1997 से पक्षी अभयारण्य के अंदर ही है।
बलिया जिला मुख्यालय से लगभग 10 किलोमीटर दूर 34.32 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला यह वन क्षेत्र, 1991 में पक्षी अभयारण्य के रूप में स्थापित हुआ। सुरहा ताल झील बलिया जिले की सबसे बड़ा फ्लडप्लेन है जहां बाढ़ का पानी जमा होता है। गंगा नदी से ही यहां पानी आता है। भारत सरकार के पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC) के मुताबिक पक्षी अभयारण्य विभिन्न प्रकार के वनस्पतियों और जीवों के लिए एक अच्छा आवास प्रदान करता है। यहां विभिन्न प्रकार के पक्षी आवास और खाने की तलाश में आते हैं।
वहीं भारतीय वन सेवा के पूर्व अधिकारी और पर्यावरणविद् मनोज मिश्रा का कहना है कि पक्षी अभयारण्य को 1990 के दशक में बहुत पहले अधिसूचित किया गया था। इसके पर्यावरण-संवेदनशील क्षेत्र को कुछ साल पहले ही अधिसूचित किया गया था। और अब इस निर्माण की योजना से पता चलता है कि कैसे एक राजनीतिक फैसले संरक्षित क्षेत्रों में वन्यजीवों पर अवैध रूप से कहर बरपा सकते हैं। जो योजना बनाई गई है वह एक समृद्ध पक्षी अभयारण्य के हिसाब से अवैध और विनाशकारी है। झील को गंगा का ‘बैल-धनुष झील (गोखुर झील)’ मानते हैं और यह बाढ़ क्षेत्र भी है।
राज्य के वन विशेषज्ञों के शोध से पहले ही स्पष्ट हो चुका है कि अभयारण्य के दायरे में आने वाले तालाब पर कृत्रिम दबाव बहुत अधिक है। पर्यावरण मंत्रालय के अनुसार, अभयारण्य में कई पक्षियों की प्रजातियां रहती हैं जैसे कि सारस क्रेन, मवेशी इग्रेट, लिटिल एग्रेट, मोर, ग्रे बगुला और पीले पैरों वाला हरा-कबूतर. यहां पक्षियों की बड़ी संख्या में प्रवासी प्रजातियों जैसे रेड-क्रेस्टेड पोचार्ड, एशियन ओपनबिल-स्टॉर्क, एशियन वूलीनेक, ग्रे हेरॉन, पर्पल हेरॉन, इंडियन पॉन्ड हेरॉन, और ब्लैक-क्राउन नाइट हेरॉन का आना-जाना बना रहता है। लेकिन अब पक्षियों की संख्या घट रही है।
विनाश को रोकने का क्या कोई रास्ता है?- बताया जा रहा है कि पर्यावरण और वन्य जीवन को खतरे में डालने के बावजूद अभयारण्य के भीतर काम कर रहा है। लेकिन इसके लिए आवश्यक अनुमति नहीं ली गई। विश्वविद्यालय के लिए एक वैकल्पिक साइट के बारे में हाल ही में बातचीत हुई लेकिन आगे कुछ नहीं हुआ। यहां तक कि विश्वविद्यालय को एक दूसरे स्थान पर स्थानांतरित करने के बारे में भी बातचीत हुई, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। गौरतलब है कि कुछ महीनों में अभयारण्य का एक हिस्सा पानी में रहता है और विश्वविद्यालय जाने वालों को नावों का उपयोग करना पड़ता है। बावजूद इसकी वैकल्पिक व्यवस्था पर जोर नहीं दिया जा रहा बल्कि विस्तार किया जा रहा है। जो कि पर्यावरण को नुकसान पहुंचाता है ऐसे में कई सवाल उठ रहे हैं।
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