उत्तर प्रदेश
जन्मदिन विशेष: चाचा की साइकिल से स्कूल जाने वाले अखिलेश कैसे पहुंचे सिडनी टू सियासत
करीब तीन दशक पुरानी बात है, पेड़ पर चढ़ा एक लड़का अपनी चाची के सामने अड़ गया कि जब तक उसे टॉफी नहीं मिलेगी, वह पेड़ से नीचे नहीं उतरेगा. ये लड़का कोई और नहीं बल्कि देश के सबसे बड़े राजनीतिक परिवार का चश्म-ओ-चिराग है.
बचपन में लोग उसे टीपू बुलाते थे लेकिन आज संविधान से लेकर संसद के गलियारों तक दुनिया उन्हें अखिलेश यादव के नाम से जानती है. जिन चाची के सामने वह अपने बचपन में टॉफी के लिए अड़ गए थे, वह कोई और नहीं बल्कि उनके चाचा शिवपाल सिंह यादव की पत्नी सरला यादव थीं. हालांकि आज शिवपाल और उनके परिवार से अखिलेश के रिश्ते बहुत मधुर नहीं हैं.
आज यानी 1 जुलाई को उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव का जन्मदिन है. इस साल वह 45 के हो जाएंगे. बचपन का टीपू कैसे यूपी की सियासत का राजा बना और कैसे इस राजा की कुर्सी पर परिवार और पार्टी के कुछ नेताओं की नजर लगी, यह एक दिलचस्प और विवादों से भरी कहानी है.
अखिलेश यादव उर्फ टीपू का जन्म 1 जुलाई, 1973 को यूपी के इटावा जिले में एक छोटे से गांव सैफई में हुआ. यह वही सैफई है जहां हर साल एक रंगारंग कार्यक्रम होता था और फिल्मी जगत की मशहूर हस्तियां अपनी कलाकारी का हुनर दिखाकर लाखों रुपए कमाकर ले जाती थीं. सैफई महोत्सव में बड़े-बड़े नेताओं और बिजनेसमैनों का जमावड़ा लगता था.
एक कहावत थी कि हिंदुस्तान की मशहूर हस्तियों का मेला देखना हो तो मुलायम सिंह के गांव में होने वाला सैफई महोत्सव देखना चाहिए. हालांकि पिछली बार इस महोत्सव को पारिवारिक और राजनीतिक विवादों की वजह से रद्द कर दिया गया था.
चाचा शिवपाल के साथ साइकिल पर बैठकर स्कूल जाते थे अखिलेश
टीपू जब छोटे थे तभी उनकी मां का देहान्त हो गया था, बचपन में ही मां का साया सर से उठ जाने की वजह से चाचा शिवपाल सिंह यादव और उनके परिवार ने ही टीपू का खयाल रखा. इटावा के सेंट मैरी स्कूल में कई बार चाचा की साइकिल पर बैठकर टीपू स्कूल जाया करते थे. स्कूल में भी अखिलेश के गार्जियन उनके चाचा शिवपाल और चाची सरला ही थीं.
हालांकि मुख्यमंत्री बनने के बाद टीपू ने क्यों चाचा शिवपाल का खयाल रखना बंद कर दिया, यह सियासी कहानी का एक अलग पहलू है. राजनीति में एक दौर ऐसा आया जब मुलायम सिंह की जान को खतरा था, उस वक्त मुलायम ने अखिलेश को स्कूल जाने से मना कर दिया था और वह घर पर ही पढ़ाई करने लगे. 1980 से 1982 के बीच चाची सरला ही उन्हें पढ़ाती थीं क्योंकि टीपू की मां बीमार रहती थीं.
टीपू बचपन में काफी शर्मीले थे लेकिन दिमागी रूप से वह काफी तेज थे. एक बार स्कूल में सांप होने की वजह से सभी बच्चे डर गए लेकिन टीपू ने पूरी हिम्मत के साथ उस सांप का सामना किया और डंडे से उसे मार दिया, इस घटना के बाद टीपू स्कूल में बच्चों के लिए हीरो बन गए थे.
टीपू के स्कूल की पढ़ाई राजस्थान के धौलपुर मिलिट्री स्कूल से हुई. चाचा शिवपाल ही उन्हें इटावा से वहां लेकर गए थे. स्कूल में दाखिले से जुड़ी सारी औपचारिकताएं चाचा शिवपाल ने ही पूरी की थीं क्योंकि मुलायम सिंह अपनी राजनीति में व्यस्त थे. स्कूल की पढ़ाई करने के बाद टीपू ने सिविल इनवायरमेंट इंजीनियरिंग में डिग्री हासिल की.
बाद में वह सिडनी यूनिवर्सिटी से इनवायरमेंट इंजीनियरिंग में डिग्री लेने के लिए ऑस्ट्रेलिया चले गए. सिडनी में पढ़ाई के दौरान उन्हें पॉप म्यूजिक का चस्का लगा. उन्हें किताबों और फिल्मों का भी शौक है. ऑस्ट्रेलिया में पढ़ाई जारी रहने तक उन्होंने अपनी पहचान छुपा कर रखी और किसी को नहीं बताया कि वह भारतीय राजनीति में नेताजी के नाम से प्रसिद्ध मुलायम सिंह यादव के बेटे हैं.
मीडिया को दिए गए इंटरव्यू में टीपू ने कई बार इस बात का जिक्र किया है कि उन्हें कभी नहीं पता था कि वह राजनीति में आएंगे. बस एक बार चुनाव लड़ने के लिए पिता का आदेश आया और वह सब छोड़कर यूपी लौट आए.
सिडनी से लिखे लेटर्स ने चार सालों तक बनाए रखा डिस्टेंस रिलेशनशिप
एक पुरानी कहावत है कि प्यार और पढ़ाई एक साथ चलते हैं. अक्सर पढ़ाई के दौरान ही प्यार परवान चढ़ता है. टीपू के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ. अखिलेश को एक लड़की से पहली नजर में प्यार हो गया. ये लड़की कोई और नहीं बल्कि डिंपल यादव थीं.
उस समय डिंपल यादव लखनऊ यूनिवर्सिटी में कॉमर्स की पढ़ाई कर रही थीं. एक कॉमन फ्रेंड के जरिए टीपू और डिंपल की पहली मुलाकात हुई थी. दोनों एक दूसरे को पसंद करने लगे थे और शादी करना चाहते थे. डिंपल यादव के पिता एससी रावत लेफ्टिनेंट कर्नल थे.
लेकिन, टीपू के पिता मुलायम सिंह यादव नहीं चाहते थे कि यह शादी हो. वह बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव की बेटी मीसा से अखिलेश की शादी करवाना चाहते थे. लेकिन, प्यार कहां किसी की परवाह करता है. टीपू ने पिता मुलायम सिंह यादव को मनाने के लिए दादी को अपना जरिया बनाया.
टीपू ने दादी मूर्ति देवी को अपनी प्रेम कहानी सुनाई और कहा कि वह डिंपल से शादी करना चाहते हैं. आखिरकार टीपू की मेहनत रंग लाई और तमाम गतिरोधों के बावजूद 24 नवंबर, 1999 को डिंपल और अखिलेश की शादी हो गई.
अमर सिंह के मनाने पर हुई थी अखिलेश और डिंपल की शादी
कहा जाता है कि अखिलेश और डिंपल की शादी के लिए एक दौर में सपा के वफादार रहे अमर सिंह ने मुलायम सिंह को मनाया था. अखिलेश की जिद के सामने मुलायम को झुकना पड़ा, ये ठीक वैसे ही था जैसे बचपन में टीपू को पेड़ से नीचे उतारने के लिए सरला चाची को टॉफी देनी ही पड़ी थी.
‘अखिलेश यादव- बदलाव की लहर’ किताब की लेखिका सुनीत एरन ने लिखा है कि दोनों की पहली मुलाकात तब हुई थी जब अखिलेश 21 साल के थे और डिंपल 17 साल की थीं. डिंपल स्कूल में पढ़ाई कर रही थीं, हालांकि दोनों तब एक दूसरे के साथ कभी नहीं रहे लेकिन डिस्टेंस रिलेशनशिप के दौरान दोनों ने एक-दूसरे को चार सालों तक डेट किया.
अखिलेश के सिडनी जाने के बाद भी दोनों लोग एक-दूसरे को लेटर लिखते रहे हालांकि आज की व्हाट्सऐप और फेसबुक वाली पीढ़ी इस दौर को करीने से नहीं समझ सकेगी. आज अखिलेश और डिंपल को एक आदर्श कपल माना जाता है. उनके दो बेटी और एक बेटा है. बेटियों का नाम अदिति और टीना है, जबकि बेटे का नाम अर्जुन है.
सुनीत ने अखिलेश के एक बयान को भी अपनी किताब में दर्शाया है जिसमें अखिलेश ने कहा, ‘अगर मैं राजनीतिक पिता का बेटा न होता तो फौजी होता.’
टीपू से टीपू सुल्तान कैसे बन गए अखिलेश यादव
टीपू एक आम आदमी की तरह अपना जीवन जी रहे थे. उन्हें जिप्सी चलाने का बहुत शौक था. मोटापे और सुस्ती से चिढ़ने वाले टीपू दूध से बने छाछ में देशी घी और जीरा का तड़गा लगवाकर पिया करते थे. अदरक की चाय और फोटोग्राफी का शौक उनके जीवन को सामान्य तरीके से चला रहा था.
साल 2000 में अचानक नेताजी(मुलायम सिंह) का पैगाम टीपू के पास पहुंचा जिसमें उन्हें यूपी की कन्नौज लोकसभा सीट से चुनाव लड़ने के लिए कहा गया था. यह मुलायम सिंह की ही खाली की हुई सीट थी जिस पर उपचुनाव हो रहा था.
यहीं से टीपू के अखिलेश यादव बनने का सफर शुरू हुआ और पहली बार कन्नौज से चुनाव जीतकर 26 साल के अखिलेश यादव ने पिता की राजनीतिक विरासत को अपने कंधों का सहारा दिया. यूपी के सियासी दरवाजों पर ये अखिलेश की पहली दस्तक थी.
साल 2004 में फिर से आम चुनाव हुए और अखिलेश यादव दूसरी बार लोकसभा के लिए चुने गए. अब लोगों में अखिलेश के अंदर पिता मुलायम की झलक दिखने लगी थी. हालांकि आलोचक अभी भी अखिलेश को परिपक्व नहीं मानते थे लेकिन समय गुजरने के साथ-साथ लोगों का यह भ्रम भी दूर हो गया.
38 साल की उम्र में यूपी के मुख्यमंत्री बने थे अखिलेश यादव
अखिलेश ने लोकसभा में हैट्रिक मारते हुए 2009 में एक बार फिर जीत हासिल की. इस बार की जीत ने अखिलेश को विरोधियों के चेहरे का सबसे बड़ा सवाल बना दिया. अब विरोधी नेता भी अखिलेश में अपना राजनीतिक प्रतिद्वंदी देखने लगे थे.
जब तक विरोधी अपने सवालों के माकूल जवाब ढूंढ पाते तब तक यूपी के सियासी गलियारों में एक बड़ा धमाका हुआ.10 मार्च 2012 को अखिलेश यादव को समाजवादी पार्टी का नेता चुन लिया गया. 2012 के विधानसभा चुनावों में समाजवादी पार्टी भारी बहुमत से जीती.
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र वाले देश ने अपने सबसे बड़े राज्य की मुख्यमंत्री पद की कुर्सी पर अखिलेश यादव को बैठा दिया. यूपी की 404 सीटों में से 224 जीत कर समाजवादी पार्टी सत्ता पर कबिज हो गई. 15 मार्च, 2012 को अखिलेश यादव ने 38 साल की उम्र में यूपी के 20वें मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली.
हालांकि चाचा शिवपाल नहीं चाहते थे कि अखिलेश मुख्यमंत्री बनें लेकिन किसी तरह उन्हें मनाकर अखिलेश को सत्ता सौंप दी गई. यह वह दौर था जब अखिलेश यादव टीपू से टीपू सुल्तान बन चुके थे.
पारिवारिक विवादों ने चटकाया टीपू सुल्तान का किला
सबसे बड़ा लोकतंत्र, सबसे बड़ा राज्य और उस राज्य का सबसे बड़ा सम्राट. सब कुछ था अखिलेश यादव के पास. सियासी दंगल में अखिलेश लगातार अपने विरोधियों को पटखनी दे रहे थे लेकिन परिवार के अंदर जिस दंगल ने तबाही मचाई, उसने नेताजी (मुलायम सिंह) के कुनबे को ताश के पत्तों की तरह बिखेर दिया.
सत्ता के सिंहासन पर एक साथ भाई और भतीजे ताल ठोक रहे थे. अखिलेश यादव और उनके चाचा शिवपाल सिंह यादव के रिश्तों के बीच दरार पड़ चुकी थी. समाजवादी पार्टी के सबसे बड़े किंगमेकर कहे जाने वाले अमर सिंह भी अखिलेश के आंखों की किरकिरी बन चुके थे. मतभेदों का सिलसिला मनभेदों में बदल गया था. मुलायम सिंह, भाई और बेटे के चुनाव की दहलीज पर अकेले पड़ गए थे.
उस दौर में यादव परिवार महाभारत के कुरुक्षेत्र से कम नहीं था. बयानों की बौछार से सियासी रणभूमि को रंग दिया गया था. समाजवादी पार्टी के टूटने की खबरें सामने आने लगी थीं. इसी बीच पार्टी के हाईकमान का एक फैसला टीवी पर ब्रेकिंग न्यूज बन गया. अखिलेश और उनके चाचा रामगोपाल यादव को पार्टी से निष्कासित कर दिया गया.
हालांकि एक दिन के अंदर ही अखिलेश को पार्टी में वापस ले लिया गया. बाद में सपा के राष्ट्रीय अधिवेशन में अखिलेश यादव को राष्ट्रीय अध्यक्ष चुना गया. मुलायम सिंह को केवल नाम के लिए पार्टी का संरक्षक बनाया गया. मुलायम ने कहा था कि यह पार्टी उनके जीवनभर की मेहनत की कमाई है लेकिन बेटे ने उन्हें बेदखल कर दिया. वहीं अखिलेश कह रहे थे कि नेताजी लोगों के बहकावे में आ गए हैं.
अखिलेश के खिलाफ अमर को साथ लेकर EC पहुंच गए थे मुलायम
मुलायम सिंह, अमर सिंह को साथ में लेकर चुनाव आयोग गए और अखिलेश की समाजवादी पार्टी को असंवैधानिक बताया और मान्यता रद्द करने की गुजारिश की. लेकिन, अखिलेश और उनके चाचा रामगोपाल ने चुनाव आयोग को पार्टी के कुल 5731 डेलीगेट्स में से 4716 के शपथ पत्र सौंपे, इन लोगों ने अखिलेश को समर्थन दिया था.
पार्टी के 229 विधायकों में से 212 ने भी अखिलेश को समर्थन दिया था और 68 विधान परिषद सदस्यों में से 56 सदस्यों और 24 सांसदों में से 15 ने भी अखिलेश को अपना नेता माना था. इस तरह अखिलेश समाजवादी पार्टी के सशक्त नेता बनकर उभरे जिसमें फैसले लेने की ताकत दिखाई दे रही थी. अखिलेश ने अपनी पहचान जाति से हटकर बनाई थी.
लेकिन पार्टी और परिवार के अंदर मची उथल-पुथल ने 2017 के विधानसभा चुनावों में समाजवादी पार्टी के पतन का नया अध्याय लिख दिया. 403 सीटों में से समाजवादी पार्टी 356 सीटें हार गई. पिछले विधानसभा चुनाव में 224 सीटें जीतने वाली समाजवादी पार्टी केवल 47 सीटों पर ही सिमट कर रह गई.
इस बार 312 सीटें जीतने वाली बीजेपी ने राज्य में सरकार बनाई और समाजवादी पार्टी के हाथों से सत्ता की चाबी सरक गई. इस हार की वजह से अखिलेश यादव को परिवार और पार्टी दोनों का नुकसान उठाना पड़ा. 2017 के चुनावों में बुरी हार का मुंह देखने वाले अखिलेश यादव को यह जख्म भरने में काफी समय लगेगा.
अगर अखिलेश यादव 2019 के लोकसभा चुनाव में सही रणनीति के साथ चुनाव लड़ते हैं तो हो सकता है कि आने वाले नतीजे 2022 के विधानसभा चुनावों में कुछ मलहम लगा जाएं.
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20 दिन बाद भी फरार है बलिया का ये BJP का ब्लॉक प्रमुख ! गिरफ्तारी में देरी क्यों ? सड़को पर उतरे वकील
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बलिया बीजेपी में नहीं है ‘सब चंगा सी’ !
लोकसभा चुनाव-2024 का आगाज हो चुका है. पहले चरण की वोटिंग 19 अप्रैल को हो चुकी है. सबसे आखिरी चरण यानी सातवें चरण में 1 जून को बलिया में भी मतदान होगा. ज़ाहिर है चुनाव को लेकर बलिया की सियासी सरगर्मियां तेज़ हैं. लेकिन सियासी गलियारे में सबसे ज्यादा चर्चा भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) की है.
बलिया में बीजेपी की चर्चा की वजह जीत नहीं, बल्कि भीतरखाने चल रही खींचतान है. टिकट बंटवारे से लेकर लोकल लीडर्स तक की अनदेखी ने जिले के कई बीजेपी नेताओं को नाराज़ और असहज कर दिया है. ऐसे तीन घटनाओं के जरिए इस अंदरूनी कलह की कलई खोली जा सकती है.
‘मस्त’ आउट, नीरज शेखर को टिकट:
2019 में बलिया लोकसभा सीट से बीजेपी के वीरेंद्र सिंह ‘मस्त’ चुनाव जीतकर संसद पहुंचे थे. ‘मस्त’ और उनके समर्थकों को उम्मीद थी कि एक बार फिर पार्टी उन्हें टिकट देगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. टिकट मिल गया पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के बेटे और बीजेपी के राज्यसभा सांसद नीरज शेखर को. बताते चलें कि 2007 के उपचुनाव और फिर 2009 के लोकसभा चुनाव में सपा की टिकट पर ही नीरज शेखर सांसद बने थे. 2014 में भी सपा ने उन्हें उम्मीदवार बनाया लेकिन बीजेपी के भरत सिंह से हार गए. 2019 में पार्टी से टिकट नहीं मिलने पर उन्होंने बीजेपी का दामन थाम लिया.
महज पांच साल के भाजपाई और पूर्व समाजवादी नेता को टिकट देने से बलिया बीजेपी के नेता खुश नहीं दिखे. बीजेपी कार्यकर्ताओं ने नीरज को टिकट मिलने पर गर्मजोशी दिखाई. हालांकि औपचारिकता के तौर पर टिकट मिलने के अगले ही दिन वीरेंद्र सिंह ‘मस्त’ से मुलाकात करने जरूर पहुंचे थे.
आनंद स्वरूप शुक्ला का फेसबुक पोस्ट:
17 अप्रैल को बलिया सदर से बीजेपी के पूर्व विधायक आनंद स्वरूप शुक्ला ने फेसबुक पर एक पोस्ट किया. आनंद स्वरूप ने लिखा है, “…2022 के विधानसभा चुनाव में आश्चर्यजनक अज्ञात व ज्ञात कारणों से भारतीय जनता पार्टी नेतृत्व ने मुझे मेरी जन्मभूमि व कर्मभूमि बलिया नगर विधानसभा क्षेत्र से स्थानान्तरित कर आपके बैरिया विधानसभा क्षेत्र से पार्टी का प्रत्याशी घोषित किया.”
इस पोस्ट में आगे वह लिखते हैं कि किन्हीं वजहों से बैरिया से उनकी हार हो गई. आनंद स्वरूप शुक्ला इसके बाद एक ऐलान करते हैं, “चुनाव परिणाम के पश्चात पार्टी नेतृत्व को मैंने अवगत कराया कि अब आगे मैं कभी भी बैरिया विधानसभा क्षेत्र से चुनाव नहीं लड़ूंगा.” यानी कि पूर्व विधायक और यूपी की योगी सरकार के पूर्व मंत्री ने साफ घोषणा कर दी वह कभी भी बैरिया से चुनाव नहीं लड़ेंगे.
इस कलह को समझने के लिए बैरिया का बैकग्राउंड समझने की जरूरत है. आनंद स्वरूप शुक्ला 2017 में बलिया सदर से विधायक बने थे. बैरिया से विधायक बने थे सुरेंद्र सिंह. लेकिन 2022 के यूपी विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने बलिया सदर से दयाशंकर सिंह को टिकट दे दिया. आनंद स्वरूप शुक्ला को ट्रांसफर किया गया बैरिया. और सुरेंद्र सिंह का टिकट काट दिया गया. नतीजा ये हुआ कि सुरेंद्र सिंह बागी हो गए. चुनाव का रिजल्ट आया तो बीजेपी बैरिया सीट गंवा चुकी थी.
सुरेंद्र सिंह एक बार बीजेपी वापसी कर चुके हैं. माना जा रहा है कि इसलिए उन्होंने खुद को हमेशा के लिए बैरिया से दूर कर लिया है. लेकिन विधायकी हारने के कोफ्त से उपजी लड़ाई अब तक जारी है और इसका असर अब लोकसभा चुनाव पर पड़ रहा है. दोनों ही खेमे फिलहाल तो बलिया में पार्टी के प्रचार से दूरी बनाए हुए हैं.
उपेंद्र तिवारी और सपा की बातचीत की ख़बरें:
बलिया में बीजेपी के एक और ब्राह्मण चेहरा हैं उपेंद्र तिवारी. 2017 में फेफना से विधायक थे. योगी सरकार में इनके नाम से भी मंत्री पद नत्थी था. 2022 में चुनाव हार गए. बलिया सीट से उपेंद्र तिवारी भी दावेदारी कर रहे थे. बीजेपी से टिकट मिलने की रेस में वीरेंद्र सिंह ‘मस्त’ और नीरज शेखर के अलावा उपेंद्र तिवारी को भी बताया जा रहा था. जब पार्टी ने यहां से नीरज को टिकट दे दिया तो उपेंद्र तिवारी को लेकर चर्चाएं तेज़ हो गईं.
अख़बारों ने साफ-साफ छापा कि सपा की ओर से बलिया में उपेंद्र तिवारी या अतुल राय को टिकट दिए जाने की उम्मीद है. चौक-चौराहों पर भी चर्चा थी कि उपेंद्र तिवारी सपा के लिए माकूल साबित हो सकते हैं. आख़िर कैसे? चर्चा चली कि घोसी से राजीव राय को टिकट मिलने के बाद बलिया से भी सवर्ण को टिकट देना अखिलेश के जातिगत इंजीनियरिंग में सेट नहीं हो पा रहा था. और ऐसे में उपेंद्र तिवारी को टिकट नहीं मिला.
हालांकि 20 अप्रैल को उपेंद्र तिवारी ने इसी ख़बर की कटिंग और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ अपनी एक तस्वीर फेसबुक पर शेयर की. उन्होंने अपनी फेसबुक पोस्ट में इस ख़बर का खंडन किया. उपेंद्र तिवारी ने भले ही सपा से टिकट मिलने की ख़बरों का खंडन कर दिया हो लेकिन ये चर्चाएं बीजेपी के खिलाफ ही काम कर रही हैं और पार्टी के समर्थन में बट्टा लगा रही हैं.
बलिया के बड़े बीजेपी नेताओं का असंतोष और फिलहाल अपने प्रत्याशी के साथ ना दिखना लोकसभा चुनाव में पार्टी को नुकसान पहुंचाता दिख रहा है. हालांकि पार्टी से जुड़े जिले के एक नेता बलिया ख़बर से नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, “बड़ी पार्टियों में ये सब होता रहता है. लेकिन बीजेपी बहुत अलग किस्म की पार्टी है. यहां निजी हित को किनारे रखकर पार्टी हित में काम होता है. अपनी-अपनी नाराज़गी की वजहें हो सकती हैं, लेकिन सभी नेता-कार्यकर्ता आलाकमान के फैसले के साथ खड़ा है और नीरज शेखर के लिए लगा है. आने वाले दिनों में आप सभी नेताओं को एक साथ मंच पर देखेंगे.”
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पुलिस भर्ती पेपर लीक में बलिया का नीरज यादव गिरफ्तार, अभ्यर्थियों को व्हाट्सएप पर भेजे थे जवाब
उत्तर प्रदेश पुलिस भर्ती परीक्षा में पेपर लीक की घटना सामने आने के बाद अब कार्रवाई शुरू हो गई है। सरकार ने भर्ती परीक्षा को रद्द कर दिया है, साथ ही साथ सीएम योगी आदित्यनाथ ने आरोपियों पर कड़ी कार्रवाई की बात कही है। इसी बीच पुलिस ने बलिया के नीरज यादव को गिरफ्तार किया है, आरोप है कि नीरज ने भर्ती परीक्षा मामले में अभ्यर्थियों को सवालों के उत्तर व्हाट्सएप पर भेजे थे।
बताया जा रहा है कि मथुरा के रहने वाले एक उपाध्याय ने नीरज को पूरी परीक्षा की उत्तर कुंजी भेजी थी और इसी कुंजी में से उत्तर देख कर नीरज ने अभ्यर्थियों को व्हाट्सएप पर जवाब भेजे थे।
अब पुलिस मथुरा के उस शख्स की तलाश कर रही है, जिसके पास भर्ती परीक्षा की पूरी उत्तर कुंजी मौजूद थी। पुलिस इस बात का भी जवाब ढूंढ रही है कि आखिर परीक्षा की पूरी उत्तर कुंजी उसे शख्स के पास कैसे पहुंची।
जानकारी के मुताबिक, लखनऊ के कृष्णानगर के अलीनगर सुनहरा स्थित सिटी मॉडर्न अकेडमी स्कूल को भी परीक्षा केंद्र बनाया गया था। 18 फरवरी को आयोजित परीक्षा की दूसरी पाली के दौरान शाम करीब 4:55 बजे कक्ष संख्या-24 के निरीक्षक वंदना कनौजिया और विश्वनाथ सिंह ने परीक्षार्थी सत्य अमन कुमार को पर्ची से नकल कर ओएमआर शीट भरते पकड़ा था। उन्होंने पर्ची बरामद कर ली थी। पुलिस टीम ने सत्य अमन को गिरफ्तार कर लिया था। पूछताछ में उसने बताया कि नीरज यादव नाम के शख्स ने उत्तरकुंजी व्हाट्सएप पर भेजी थी।
नीरज ने पुलिस को बताया कि मथुरा निवासी उपाध्याय ने उसको उत्तरकुंजी भेजी। व्हाट्सएप चैट से इसकी पुष्टि भी हुई। सूत्रों के मुताबिक उपाध्याय को जानकारी हो गई थी कि सत्य अमन पकड़ा गया है। इसलिए वह दबिश से ठीक पहले वह भाग निकला। वहीं आरोपी नीरज यादव मर्चेंट नेवी में था। वर्तमान में वह नौकरी छोड़ रखी है। सूत्रों के मुताबिक वह परीक्षाओं में सेंधमारी का काम कुछ वक्त से कर रहा है। इसके एवज में मोटी रकम वसूलता है।
अब तक इस जांच में कई अनसुलझे सवाल पैदा हुए हैं। सवाल यह है कि आखिर नीरज यादव का नेटवर्क कहां तक है और उसे कुंजी उपलब्ध करवाने वाले उपाध्याय को उत्तर कुंजी कहां से मिली। आखिर नीरज ने उत्तर कुंजी देने के बदले अमन से कितनी रकम मांगी थी और कितने अन्य लोगों को उत्तर कुंजी दी गई है। ये सभी सवाल अनसुलझे हैं, जिनका जवाब आने वाले वक्त में ही मिल पाएगा।
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