Ballia Balidan Diwas – 8 अगस्त 1942 की मध्य रात्रि को मुंबई से गांधी जी ने एक नारा दिया… करो या मरो। जिसके बाद गांधी सहित तमाम नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। नेताओं की गिरफ्तारी के बाद आंदोलन स्वतःस्फूर्त अपनी रफ्तार से चलने लगा। जो अंगेज़ों के खिलाफ अब तक का सबसे बड़ा आंदोलन था। जिसका नाम ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन’ था। जिसकी सबसे खास बात थी…ब्रिटिश साम्राज्य के समानांतर स्वतंत्र सरकारे…
ऐसी ही एक सरकार बनी थी, जिसको नाम दिया गया… स्वतंत्र बलिया प्रजातंत्र। इस सरकार के बनने की पृष्ठभूमि गांधी जी के आह्वान के बाद ही शुरू हो गई थी। गांधी जी सहित कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं की गिरफ्तारी की ख़बर शाम तक रेडियो के जरिये गांव-गांव में पहुंच गई। अगली सुबह बनारस से छपने वाले अख़बार दैनिक आज ने बलिया में इसे और गति दी। जिसके बाद जिले के आंदोलनकारियों ने एक के बाद एक थाना और तहसीलों पर कब्ज़ा जमाना शुरू कर दिया। रेलवे लाइन उखाड़ दी। सरकारी कार्यालयों पर आंदोलनकारियों ने डेरा जमा लिया।
19 अगस्त 1942 का दिन ऐतिहासिक था। शाम 5 बजे जिला कारगर के बाहर करीब 50 हज़ार लोगों की भीड़ हल, मूसल, कुदाल और हसुआ जैसे खेती के औजारों को हथियार बनाकर अपने नेता चित्तू पांडेय और उनके साथियों की रिहाई की मांग करने लगे। दबाव में आकर जिला प्रशासन ने चित्तू पांडेय और उनके साथियों को छोड़ दिया। और फिर चित्तू पांडेय के नेतृत्व में 6 बजे बलिया को आजाद राष्ट्र घोषित कर दिया गया।
ये ब्रिटिश हुकूमत के लिए बहुत बड़ा झटका था। तब अंग्रेजी सरकार ने बनारस के कमिश्नर नदेर सोल को बलिया का डीएम बनाकर भेजा। उसने अपनी बलूच फौज के साथ जिले भर में मौत का तांडव शुरू कर दिया। हफ्ते भर बाद अंग्रेजों का बलिया पर फिर से कब्जा हो गया। ये इतना महत्वपूर्ण था कि बीबीसी को अपनी अंग्रेजी बुलेटिन में बताना पड़ा कि बलिया पर फिर से कब्ज़ा कर लिया गया है।
इसके बाद अंग्रेजी हुकूमत का क्रूर तांडव शुरू हुआ। गांवों पर सामूहिक जुर्माना लगाया गया। जो 1944 तक चलता रहा। फिरोज गांधी की कानूनी सहायता के बाद अंग्रेजी सरकार के अत्याचारों का अंत हुआ। फिरोज गांधी, इंदिरा गांधी के पति और राहुल गांधी के दादा थे। यूं तो वो जवाहरलाल नेहरू के दामाद भी थे लेकिन वो नहेरू के सबसे बड़े आलोचक भी थे। फिरोज गांधी की आलोचनाओं ने संसदीय प्रतिमान स्थापित किये। जिसकी चर्चा आज भी होती है। इन्हीं फिरोज गांधी ने बलिया के लोगों के लिए कानूनी जंग लड़ी और जीती। इस तरह बलिया ने 5 साल पहले ही आज़ादी का स्वाद चखा। जिसकी कीमत अमूल्य थी। जो आज भी हमारे लिए एक धरोहर है।
(लेखक- हुसैनाबाद, बांसडीह के रहने वाले अंकित द्विवेदी पत्रकार हैं और दिल्ली में एक मीडिया संस्थान से जुड़े हुए हैं )
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