भारत की सांस्कृतिक और ऐतिहासिक धरोहरों को सहेजने के साथ ही यूनेस्को अब भारत के पारंपरिक खेलों को भी संरक्षण देगा। विश्व की सांस्कृतिक राजधानी काशी से इसकी शुरुआत होगी। पूर्वांचल के विलुप्त हो चुके पारंपरिक खेलों जैसे गुल्ली-डंडा, मलखंभ, जोड़ी, गदा, डंबल, नाल और खो-खो फेरने की कलाओं को यूनेस्को की मदद से सहेजा और संवारा जाएगा।
इसी कड़ी में यूनेस्को ने वाराणसी के खेल प्रमोटर प्रदीप बाबा मधोक को बतौर ब्रांड एंबेसडर यह जिम्मेदारी सौंपी है। इस मामले में यूनेस्को की दो सदस्यीय टीम ने दो बार काशी का दौरा भी किया है।
बता दें कि बाबा मधोक बाडी बिल्डिंग संघ के अध्यक्ष हैं और उत्तर प्रदेश में बॉडी बिल्डिंग समेत कई खेलों को प्रमोट करने में बड़ी भूमिका रही है। यूनेस्को की पहल पर वे अब देश के पारंपरिक खेलों को संरक्षण देंगे।
जोड़ी, गदा, नाल फेरने की परंपरा काशी में सदियों पुरानी है। शुरुआती दौर में इसके बड़े-बड़े दंगल हुआ करते थे। तमाम पहलवान अपने दम खम और कौशल का परिचय देते थे। मगर अब जब अखाड़ें बंद होने लगे तो यह प्रतियोगिताएं सिमट कर महज नागपंचमी का हिस्सा रह गईं।
बात अगर गिल्ली डंडे की करें तो चार दशक पहले तक काशी की गलियों में बच्चे गिल्ली डंडा खेलते नजर आते थे मगर क्रिकेट के ग्लैमर में अब यह किस्सागोई ही बनकर रह गया है।
भारतीय जीवन शैली में व्यायाम शुरू से ही एक अहम हिस्सा रहा है। पुराने दिनों में लोग वर्जिश के लिए अखाड़ों में जाते थे। बदलते वक्त में अखाड़े अब हाईटेक होकर जिम का रूप ले चुके हैं।
अखाड़ों की मिट्टी से ही कई नामचीन पहलवान निकले। वाराणसी में ओलंपियन चिक्कन पहलवान का नाम आज भी लिया जाता है। ओलंपिक विजेता सुशील कुमार हो या योगेश्वर दत्त सभी की शुरूआती ट्रेनिंग अखाड़ों से ही हुई है।
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