कभी देश की राजनीति के केन्द्र में रहे पूर्वांचल के दो प्रमुख नेताओं की निशानियां लोकसभा चुनाव के परिदृश्य से अब ओझल हो गयी हैं. दशकों बाद यह पहला लोकसभा चुनाव है जब घोसी से चार बार सांसद रहे दिवंगत नेता कल्पनाथ राय तथा वर्ष 1977 के बाद से अर्से तक बलिया ही नहीं बल्कि राष्ट्रीय राजनीति के केन्द्र में रहे चंद्रशेखर या उनका परिवार प्रत्यक्ष रूप से राजनीति के परिदृश्य से बाहर हैं . पहले बात पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की करें. सत्ता या विपक्ष में रहते हुए भी राजनीति में अलग लकीर खींचने वाले तथा अपने सिद्धांतों पर अडिग रहने वाले इस ‘युवा तुर्क’ ने साल 1977 में बलिया से पहली बार लोकसभा चुनाव लड़ा और जीत दर्ज की.
1980 के चुनाव में भी परिणाम चंद्रशेखर के पक्ष में रहा. वर्ष 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या से उपजी ‘सहानुभूति लहर’ में चंद्रशेखर कांग्रेस उम्मीदवार से पराजित जरूर हो गए लेकिन बलिया और चंद्रशेखर एक दूसरे के पर्याय बने रहे और 1989, 1991, 1996, 1998, 1999 और 2004 के लोकसभा आम चुनाव तथा मध्यावधि चुनावों में उन्होंने जीत हासिल की. इस बीच वह देश के प्रधानमंत्री भी बने और बलिया की पहचान ‘चंद्रशेखर वाला बलिया’ से होने लगी. वर्ष 2007 में चंद्रशेखर के निधन पर हुए उप चुनाव तथा उसके बाद 2009 के आम चुनाव में उनके बेटे नीरज शेखर ने बलिया से जीत हासिल की. ये चुनाव भले ही नीरज लड़े, लेकिन राजनीति के केन्द्र में चंद्रशेखर ही रहे.
हालांकि लोकसभा के पिछले चुनाव 2014 की मोदी लहर में नीरज शेखर को भाजपा के हाथों हार का सामना करना पड़ा. मौजूदा लोकसभा चुनाव में भी बलिया सीट से सपा के टिकट से नीरज शेखर की दावेदारी थी, लेकिन नामांकन के आखिरी दिन के ऐन मौके पर उनकी जगह बलिया से सनातन पांडे को उम्मीदवार घोषित कर दिया गया. इस तरह चंद्रशेखर या उनका परिवार इस बार के चुनावी परिदृश्य से बाहर हो गया. उधर, पूर्वांचल के एक अन्य दिग्गज नेता रहे कल्पनाथ राय या उनका परिवार भी दशकों बाद राजनीति के केन्द्र से बाहर है.
घोसी संसदीय सीट की राजनीति में कल्पनाथ राय की आमद यूं तो वर्ष 1980 में ही हो गयी थी लेकिन वह पहली बार 1989 में सांसद बने. इसके बाद 1991, 1996 और 1998 में भी उन्होंने संसद में लगातार घोसी का प्रतिनिधित्व किया. अपने विकास कार्यों तथा तेवर के चलते पूर्वांचल ही नहीं बल्कि प्रदेश की राजनीति में कल्पनाथ राय ने खास मुकाम हासिल किया. वर्ष 1999 में उनके निधन के बाद हुए चुनाव में उनकी पत्नी डा. सुधा राय को कांग्रेस ने उम्मीदवार बनाया. हालांकि उनके ही खिलाफ पुत्र सिद्धार्थ राय समता पार्टी से चुनाव लडे़. नतीजा दोनों की हार हुई. इसके बाद वर्ष 2004 और 2009 में भी सुधा राय ने घोसी से चुनाव लड़ा लेकिन कामयाबी नहीं मिली.
2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने कल्पनाथ राय की पत्नी सुधा राय को बलिया सीट से उम्मीदवार बनाया लेकिन उन्हें महज 15 हजार वोट ही मिले. मौजूदा चुनाव में कल्पनाथ राय या उनका परिवार भी सियासी परिदृश्य से पूरी तरह बाहर है. पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के पौत्र विधान परिषद सदस्य रविशंकर सिंह इस स्थिति के लिये परिस्थितियों को जिम्मेदार मानते हैं. वह कहते हैं कि सपा—बसपा गठबंधन के तहत उनकी लोकसभा सीट बसपा के हिस्से में चली गयी, इस वजह से उनका चुनाव लड़ना सम्भव नहीं हो सका.
दूसरी तरफ चंद्रशेखर के पुत्र नीरज शेखर राज्यसभा में हैं तथा उनका अभी तकरीबन 2 वर्ष का कार्यकाल बचा हुआ है. ऐसे में परिवार के किसी सदस्य का चुनाव लड़ना सम्भव नहीं हो सका. रविशंकर मानते हैं कि यह परिवार के लिये अजीब स्थिति है क्योंकि बलिया सीट उनके परिवार की परंपरागत सीट है. हालांकि वह यह मानने को हरगिज तैयार नहीं हैं कि चुनाव न लड़ने से परिवार का सियासत में दखल कम होगा. उधर, पूर्व केंद्रीय मंत्री कल्पनाथ राय की पत्नी सीता राय कहती हैं कि जब राजनैतिक दल टिकट देंगे तभी कोई चुनाव लड़ पायेगा.
वह कहती हैं कि टिकट भले न मिले, उनका परिवार सेवा का काम करता रहेगा. सूबे में मुलायम और अखिलेश सरकारों में काबीना मंत्री रहे अम्बिका चौधरी कहते हैं कि कल्पनाथ राय के निधन के बाद उनके बेटे और पत्नी सियासत में मजबूत पकड़ नहीं बना पाये, जिसके कारण राजनैतिक दलों ने इस परिवार के किसी सदस्य को टिकट नहीं दिया. वह कहते हैं कि चंद्रशेखर के परिवार के लोग अभी भी राज्यसभा और विधान परिषद में हैं, इसलिए इस परिवार के किसी व्यक्ति के लोकसभा चुनाव ना लड़ने से सियासी हैसियत पर कोई असर नहीं पड़ता.